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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4748
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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परमपूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी महाराज के द्वारा लिखी गई धर्म पर आधारित पुस्तक.....

Prem Moorti Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री राम: शरणं मम

भरत महा महिमा सुनु रानी

‘प्रेम मूर्ति भरत’ के प्रकाशन की छठी आवृत्ति के असर पर मैं कुछ लिखूं ऐसा आग्रह मुझसे किया गया है। श्री भरत के चरित्र के सन्दर्भ में महाराज जनक का यह वाक्य जिसमें वे ‘भरत भरत सम जानि’ कहते हैं अतिशयोक्ति या स्तुतिपरक ही नही हैं वह एक ऐसा यथार्थ है जिसका अनुभव मुझे निरन्तर होता रहा है और हो रहा है।
प्रवचनों की सुदीर्घ अवधि में श्री भरत चरित्र को केन्द्र बना कर कितने प्रवचन मेरे माध्यम से हुए हैं इसकी गणना मैंने नहीं की। पर वह संख्या कम से कम 350 होगी ऐसी मेरी धारणा है। सर्वदा श्रोताओं ने रस विभोर होकर उसका आनन्द लिया है; किन्तु मैंने श्रोताओं से भी अधिक सुखानुभूति की है ऐसा कहूँ तू इसे आत्म स्तुति के रूप में देखना उपयुक्त नहीं होगा। इस अन्तर का कारण यही है कि मैंने भरत चरित्र को ‘कहा’ ही नहीं ‘सुना’ भी है। और आशचर्यचकित होता रहा हूँ। प्रभु ने प्रत्येक बार मुझे नए-नए भरत का दर्शन कराया है। और तब मन में यही पंक्ति में गुनगुना लेता हूँ।

निरवधि गुण निरुपम पुरुष भरत भरत सम जानि।
कहिय सुमेरु कि शेर सम कवि कुल मति सकुचानि।।

प्रकाशनों की श्रृंखला में भी कई ऐसी पुस्तकें हैं जिनमें भी भरत के अनन्त आयाम चरित्र के कुछ पक्षों का उद्धाटन हुआ है। यदि मेरे माध्यम से हुए सभी प्रवचनों को प्रकाशित किया जाता तो पाठक यह पढ़कर चकित हो जाता कि उनमें कितनी भिन्नता है। किन्तु यह नित नूतनता मेरी प्रतिभा का परिचायक नहीं है वस्तुत: राजर्षि जनक के कह दिया भरत की महिमा का बखान तो श्री राम भी नहीं कर सकते।

भरत महा महिमा सुनु रानी।
जानहिं राम न सकहिं बखानो।।

तब मेरी प्रतिभा का क्या अर्थ है।

‘जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही कहहु तूल केहि लेखे माहीं।’

फिर भी जो कहा गया जो लिखा गया, वह भी तो उस करुणामय राघव की प्रेरणा का ही परिणाम है।

‘प्रेम मूर्ति भरत’ प्रवचन के माध्यम से नहीं लेखन के माध्यम से सामने आया। संभवतः उस समय मेरी आयु 19 वर्ष रही होगी। इसके लेखन के समय जिस भावस्थिति में स्वयं को पाता था उसकी स्मृति आज भी विह्वल बना देती है। श्री भरत की अवध से चित्रकूट की यात्रा में मैं प्रतिक्षण उनके साथ था। प्रेम सिन्धु भरत की भावना लहरियों का एक कण मुझे रससिक्त कर देता था।
सुदीर्घ अवधि में जब कई ग्रन्थों के प्रकाशन हो चुके हैं। ‘प्रेममूर्ति भरत’ की माँग बनी ही रहती है यह श्री भरत प्रेम की महिमा ही तो है।

सुमिरत भरतहिं प्रेम राम को।
जेहि न सुलभ तेहि सरसि बाम को।

-रामकिंकर



महाराजश्री : एक परिचय



प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


सर्वपन्थाः गावः दोग्धा तुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी



।। श्री राम: शरणं मम ।।

अमृत-मन्थन


गोस्वामी जी की लेखिनी से जिन अनेक उत्कृष्ट पात्रों का चित्रण हुआ है असंदिग्ध रूप में भरत उनमें सर्वश्रेष्ठ हैं। और इसका कारण यह हैं कि भरत के साथ गोस्वामी जी की पूर्ण एकात्मकता। यूँ तो किसी भी पात्र का यर्थाथ चित्रण बिना उससे तादात्मय की अनुभूति के होना सम्भव नहीं है। फिर भी, उस तादात्मय में भी एक भेद तो होता ही है। साधारण जीवन में एक पात्र से स्वभागवत भिन्नता होते हुए भी महान् लेखक उससे अल्पकालिक एकता प्राप्त कर लेता है। और वर्णन के पश्चात् उससे पृथक हो जाता है। पर हम दूसरी ओर किसी एक पात्र की कल्पना करें जिससे एकता सर्ककालिक हो, जो साहित्य में ही नहीं उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लेखक की चिरसंगी हो, जिसकी प्रत्येक क्रिया में स्वयं साहित्यकार का जीवन साकार हो उठे वस्तुत: यही तादात्मय पूर्ण होता है। और तब स्वभावत: ऐसे पात्र का चित्रण अद्वितीय होता है। मानस के श्री भरत से गोस्वामी जी का तादात्मय ठीक इसी प्रकार का है।

भक्ति के विवध रूपों का चित्रण मानस में किया गया है। और विविध धाराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले हैं पृथक्-पृथक् पात्र पर भक्ति का वह स्वरूप जो स्वयं गोस्वामी जी को अभीष्ट है, प्रिय है उसकी समग्रता भरत के जीवन में ही चरितार्थ होती है। स्वयं अपने लिए उन्होंने जिस जीवन-दर्शन का आश्रय लिया, साधन की जिस प्रणाली को अपनाया, वह भरत-चरित्र में निहित हैं।

वस्तुत: गोस्वामी जी जिस समन्वयी प्रणाली के समर्थक हैं उसका मूल स्रोत्र भरत-चरित्र से ही लिया गया है।
भरत-चरित्र में कर्म, ज्ञान और भक्ति की जो त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, वह अनोखी है। देखा यही जाता है कि इन तीनों में से किसी एक की स्वीकृति व्यवहारत: अन्यों की अस्वीकृति बन जाती है। कर्म और कर्तव्य की दुहाई देने वाला भक्ति की उपेक्षा करता है। क्योंकि ऐसा लगने लगता है कि दयालु ईश्वर की स्वीकृति से कर्म की वह सजग प्रेरणा समाप्त हो जाती है जो ‘निजकृत कर्म भोग सब भ्राता’ के स्वीकार करने पर बनी रहती है। अत: बहुधा कर्त्तव्य-परायणता का अग्रही ‘भक्ति’ को दुर्बल व्यक्ति का धर्म समझता है। दूसरी और भक्ति का पथ का पथिक दयालु ईश्वर से जिस आशा का सन्देश और आश्वस्तता की अनुभूति पाता है वह कर्म सिद्धान्त की कठोर प्रक्रिया से विरत बना देता है।

ज्ञानी भक्त और कर्मपरायण दोनों को ही सत्य से दूर केवल धर्म बंधन और भावना से पड़ा हुआ मान लेता है। वस्तुत: इन तीनों के समन्वय का अभाव व्यक्ति के जीवन को किसी न किसी अंश में दुर्बल बना देता हैं। पर इन तीनों के एकत्रीकरण में व्यवहारत: कठिनाइयाँ भी काम नहीं हैं। एक समस्या तो यही है कि इन तीनों में ‘इस या ‘उस’ की स्वीकृति किसी सत्य को दृष्टिगत रखकर नहीं की जाती। स्वीकृति में भी स्वभावगत संस्कार के मुख्य होते हैं। इसका एक भयावह परिणाम होता है- मान लें एक व्यक्ति की सक्रियता और एक चरित्र में त्रुटि है। स्वभाविक है कि ऐसे व्यक्ति को कर्म-सिद्धान्त अप्रिय लगे और और एक दयालु भगवान के गुणों का बखान करके आत्म-संतोष पाने का प्रयास करे।

अब ऐसे व्यक्ति की भक्त के रूप में स्वीकृति का फलितार्थ क्या होगा ? उस व्यक्ति की त्रुटि को हम भक्ति-सिद्धान्त की त्रुटि के रूप में देखेंगे। इसी प्रकार एक रजोगुणी व्यक्ति की अहं स्फूर्ति और दूसरे व्यक्ति का बुद्धि वैभव और अहं के प्रति झुकाव कर्म और ज्ञान की प्रेरक बन कर इसी प्रकार की समस्याएं उत्पन्न कर देते हैं। अत: फलितार्थ रूप में तीनों ही वह परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते जिसकी सैद्धान्तिक रूप में उनसे अपेक्षा की जाती है। अत: सही अर्थों में तीनों का समन्वय एक दूसरे की कमी को पूर्ण कर सकते हैं। जैसे कर्म सिद्धान्त की सक्रियता, भक्ति सिद्धान्त में जिस निष्क्रियता का भय है उसे न आने देगी। साथ ही स्वयं कर्म-सिद्धान्त भक्ति के सहयोग में अपनी अहं प्रधान वृत्ति पर विजय पा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान में दोनों ही भय है। वह व्यक्ति को निष्क्रियता और अहंकार दोनों ओर प्रेरित कर सकता है। भक्ति और कर्म के सहयोग से इन दोनों कठिनाइयों से मुक्त होकर वह सत्य की उपलब्धि का महान साधन बन जाती है।

अत: समन्वय साधन को जीवन में चरितार्थ करने वाले जिस पात्र की हमें अपेक्षा है, उसकी उपलब्धि भरत के रूप में हो जाती है। मानस के विवध प्रसंगों में हम उनकी इस विशेषता का दर्शन कर सकते हैं और इसका ही स्वभाविक परिणाम है मानस के समस्त पात्रों में भरत के चरित्र की उत्कृष्टता। अनेक पात्रों में उत्कृष्टता होते हुए भी एकांगिता है। भरत का चरित्र सन्तुलित और पूर्ण है। अयोध्या काण्ड जो साहित्य और भावात्मक दोनों ही दृष्टियों से मानस का सर्वश्रेष्ठ अंग है वस्तुत: भरत की गुण-गरिमा का गायक है। भरत की सराहना में वन्दना प्रसंग में लिखित पंक्ति ‘जासु नेम ब्रत जाय न बरना’ भरत और अयोध्या काण्ड दोनों के प्रति समान रूप से उद्धत की जा सकती है।

भरत के व्यक्तित्व का दर्शन हमें ‘राम वन गमन’ के पश्चात् ही होता है। उसके पहले उनका चरित्र-मूक समर्पण का अद्भुत दृष्टान्ट है जिसे देख कर कुछ भी निर्णय कर पाना साधारण दर्शक के लिए कठिन ही था। इसी सत्य को दृष्टिगत रखकर गोस्वामी जी ने ‘राम वन-गमन’ के मुख्य कारण के रूप में भरत प्रेम-प्राकट्य को स्वीकार किया। जैसे देवताओं ने समुद्र मंथन के द्वारा अमृत प्रकट किया था ठीक उसी प्रकार राम ने भी भरत-समुद्र का मंथम करने के लिए चौदह वर्षों के विरह का मन्दराचल प्रयुक्त किया। और उससे प्रकट हुआ-राम प्रेम का दिव्य अमृत।


प्रेम अमिय मन्दर विरह भरत पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटे सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर।।


प्रस्तुत पुस्तक में इसी ‘अमृत-मन्थन’ की गाथा है।
शैली-भावना प्रबल है और एक विशिष्ट भावस्थिति में लिखी भी गई है।
 

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